महाबलीपुरम में वैसे तो कम से कम ५० जगह शिवजी को सपरिवार प्रर्दशित किया गया है परन्तु न जाने क्यों गणेश जी कहीं भी नहीं पाये जाते. हाँ एक गणेश रथ (नंदिर) है जहाँ गणेश जी की नित्य पूजा होती है.लेकिन उसकी कहानी कुछ निराली है. क्या आपने मालगुडी डेस वाला सीरियल देखा है. याद कीजिये. एक एपिसोड में एक गरीब वृद्ध रहता है और उसके परिवार को बकरी का दूध बेच कर गुजारा करना पड़ता था. एक दिन वह अपनी बकरी को लेकर चराने जाता है. एक जगह एक पुतले के नीचे बैठ कर विश्राम कर रहा होता है. पुतला एक टेराकोटा का बना घोड़ा रहता है. एक अंग्रेज उधर से आता है और उस घोडे को देख खरीदने की इच्छा जाहिर करता है. दोनों एक दूसरे की बात समझ नहीं पाते. अंग्रेज समझता है की इस घोडे का मालिक वह बुड्ढा ही है. आपसी बातचीत बड़ी मजेदार थी. जैसे अंग्रेज ने पूछा कितने में बेचोगे. तो बुड्ढा कहेगा, मैंने खाना नहीं खाया. अंग्रेज बोलेगा चलो तुमको १०० रुपये देता हूँ. बुड्ढा सोचता है शायद अंग्रेज उसकी बकरी मांग रहा है. कुछ संवाद के बाद बुड्ढा पैसे ले लेता है और बकरी को छोड़कर खुशी खुशी घर चला जाता है. उधर अंग्रेज खुश होकर घोड़ा उठा ले जाता है
आज जो गणेश मन्दिर कहलाता है, मूलतः वह शिव मन्दिर था. अन्दर शिव लिंग और बाहर एक नंदी हुआ करता था. अंग्रेजों के ज़माने में मद्रास प्रान्त में एक गवर्नर था लार्ड होबर्ट (१७९४-१७९८). उसे वहां का शिव लिंग भा गया. उसने ग्राम प्रधान को बुलाया और २० स्वर्ण मुद्राएँ दी (स्टार पेगोडा = ८ शिल्लिंग) इसके एवज में शिव लिंग उठा ले गया. कुछ समय पश्चात लार्ड क्लाइव (१७९८-१८०३) वहां से नंदी को ले गया और अब दोनों ही इंग्लैंड में हैं. गाँव वालों ने खाली पड़े मन्दिर के अन्दर गणेश जी को बिठा दिया. उस मन्दिर के शिव मन्दिर होने की पुष्टि गर्भगृह के दक्षिणी दीवार पर उत्कीर्ण लेख है जो कहता है कि अत्यन्तकाम (राजसिंह) ने ( सन ६३० ईसवी) इस पल्लवेस्वर मन्दिर का निर्माण कराया था.
सम्भव है कि आर.के. नारायण, मालगुडी डेस के रचयिता ने इतिहास की इसी घटना से प्रेरणा ले कर उस कहानी को लिखा हो.
श्री किशोर चौधरी जी ने अपनी टिपण्णी में कहा:
सन् १८८५ में फिलाडेल्फिया में एक अंतर राष्ट्रीय मेला लगा था, उसमे प्रदर्शित करने के लिए एक शिव लिंग वहां भेजा गया था. विश्व मेला अधिकारीयों ने उसे वहां प्रदर्शित नहीं होने दिया. अगले साल ऐसा ही मेला लन्दन में आयोजित हुआ. यही शिवलिंग वहां भी पहुंचा लेकिन उसका प्रदर्शन तो दूर उसको अश्लील कह कर फैंक दिया गया.
सौभाग्य से सर जोर्ज बर्डवुड की नजर उस पर पड़ी वे उसे अपने दफ्तर ले आये कहीं से एक रुद्राक्ष माला का प्रबंध कर उसको एक मेज पर स्थापित कर दिया. उन्होंने अपने भारतीय मित्र श्री नाडकर्णी से इस शिवलिंग की उचित स्थान पर स्थापना सम्बन्धी आग्रह किया. श्री नाडकर्णी ने अपने धर्मगुरु स्वामी आत्मानन्द सरस्वती से इस विषय में चर्चा की स्वामी जी ने एक कश्मीरी ब्राहमण से धर्म शास्त्र सम्बन्धी सलाह मांगी तो उन्होंने सहमती दे दी कि इसकी विधिवत प्रतिष्ठा में कोई शास्त्र सम्मत बाधा नहीं है.
सर जोर्ज बर्ड वुड ने स्वयं के खर्च से इसे भारत पहुँचाया और इसकी स्थापना करावा कर आसीम आनंद प्राप्त किया, कभी अवसर मिले तो कारवार से कोई ३५ मील दूर कोंकण के गौड़ सारस्वत मठ में दर्शन कर लाभ उठायें. इसका नाम चक्रवर्ती शिवलिंग है और सात समंदर की यात्रा पूर्ण कर स्थापित होने के कारण यह नाम भी सर जोर्ज बर्ड वुड का ही दिया हुआ है
सब अपना अपना नजरिया है !
दिनांक ५ मार्च को पढें एक विलक्षण प्रतिमा के बारे में जो न कभी देखा और न सुना होगा.
मार्च 1, 2009 को 7:39 पूर्वाह्न
बड़ी रोचक जानकारी दी आपने.
यह अच्छा लग रहा है जानकर कि अंग्रेज शिवलिंग और नन्दी को भी अपने साथ ले गये थे .
मार्च 1, 2009 को 7:53 पूर्वाह्न
बहुत रोचक जानकारी दी आपने.
रामराम.
मार्च 1, 2009 को 8:26 पूर्वाह्न
शिल्लिंग और शिवलिंग बार्टर का मामला वाकई बड़ा रोचक है -मालगुडी डेज की बी बात भी सच हो सकती है !
मार्च 1, 2009 को 8:27 पूर्वाह्न
रोचक और शिक्षाप्रद
मार्च 1, 2009 को 8:28 पूर्वाह्न
आभार, आप बहुत सुंदर जानकारियाँ दे रहे हैं। भारत के इतिहास में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलेगा।
मार्च 1, 2009 को 9:06 पूर्वाह्न
दिलचस्प कहानी है. लेकिन सर इस बारे में आपको पूरी जानकारी देनी चाहिए थी.
मार्च 1, 2009 को 9:49 पूर्वाह्न
बहुत रोचक जानकारी लगी यह ..शुक्रिया
मार्च 1, 2009 को 10:05 पूर्वाह्न
दिलचस्प कहानी .
और रोचक शैली
मार्च 1, 2009 को 11:01 पूर्वाह्न
रोचक जानकारी.
मक्कार अंग्रेज हमारा ही पैसा देकर हमारे शिवलिंग और नन्दी को भी अपने साथ ले गये.
मार्च 1, 2009 को 11:14 पूर्वाह्न
मन्दीर में स्थापित मूर्ति पैसों के लिए बेच देना, आश्चर्य जगता है. कैसे भक्त है लोग?!!
रोचक जानकारी.
मार्च 1, 2009 को 11:37 पूर्वाह्न
दक्षिण के मंदिरों में गणेश जी का ना पया जाना उस कथा के कारण तो नहीं है जिसमे बताया गया है कि गणेश जी प्राथमिकता दिये जाने से अपने पिता व माता से नाराज हो स्कंद जी इधर चले आये थे ?
मार्च 1, 2009 को 11:50 पूर्वाह्न
आपके पोस्ट को पढ़ कर एक उपलब्धि का अनुभव होता है, भाई साहब !
पर, श्री अनुराग शर्मा जी की टिप्पणी विचलित मुझे कर रही है, वह यहाँ दर्ज़ करवाना चाहूँगा..
” मक्कार कौन, अंग्रेज़ या यह लोभी भक्त ?”
श्रद्धेय बिस्मिल की आत्मकथा में उनके संयत दारूण क्रंदन ने जैसे मेरे हाथ ही बाँध दिये हैं ।
मुझे शर्म है, कि मैं एक विवेकहीन और अदूरदर्शी कौम में उपजा हूँ ।
आज भी तो अमूल्य मूर्तियाँ खरीदी और बेची जा रही हैं, अनुराग जी !
बहुतों को भला नहीं लगेगा.. पर मैं इस मामले में अंग्रेज़ों का कृत्तज्ञ हूँ,
उन्होंने हमारे धरोहर को अपनी म्यूज़ियम में सही, पर सुरक्षित तो रखा है,
चाहे वह महाराजा रंजीत सिंह के शस्त्र हों, या कुछ और ?
इस कटु टिप्पणी के मेरे अपने कारण हैं,
पोस्ट प्रलाप न करके इसको यहीं सुलटा लेता हूँ..
इसी शुक्रवार 27.02.09 को 250 वर्ष पुरानी अक्षत बनारसी साड़ियों से अँटा हुआ एलबम कबाड़ में बरामद हुआ.. जिस पर किसी म्यूज़ियम (जिसका नाम भी दे सकता हूँ ) की मोहर लगी है.. तारीख़ है मई 1931 की.. अब क्या कहेंगे आप ?
मार्च 1, 2009 को 12:46 अपराह्न
अंग्रेजों के लिए भगवान की मूर्तियां पूज्य नहीं हैं लेकिन कलाप्रेम के कारण वह उन्हें ले गए। हम गुलाम रहे और गुलामी में अगर किसी अंग्रेज शासक ने प्रतीकात्मक कीमत देकर उन मूर्तियों को उनके रखवालों से मांगा तो उनकी विवशता भी रही होगी। अंग्रेजों की जगह अकर मुगल या तुर्क होते तो वह मूर्ति ले जाने के साथ दो-चार को लुढ़का भी गए होते। मैं डा0 अमर कुमार की सोच से सहमत हूं कि अंग्रेजों ने हमारी कलाकृतियों को सहेज कर रखा। उन्हें म्यूजियम में रखा लेकिन आजादी के बाद तो हमने अपनी तमाम धरोहरों को नेस्तनाबूद कर दिया।
आज अगर पुरातत्व विभाग का अस्तित्व है तो इसमें फिरंगियों का भी योगदान हैं। लाल किले की जो रिपेयर उसकी ओरिजनलिटी को बरकरार करते हुए कराई; उस तरह के काम हम आजादी के बाद नहीं करा सके। वास्तु, स्थापत्य और इतिहास से जो प्रेम युरोपियनस को है वह हमारे में नहीं है।
मार्च 1, 2009 को 1:07 अपराह्न
जब भगवान बिक जाते हैं तो बेचारे गाँधी जी के चप्लल चश्मे की क्या औकात ?
घुघूती बासूती
मार्च 1, 2009 को 2:01 अपराह्न
आप कितनी रोचकतापूर्वक इस प्रकार की सुन्दर जानकारियां प्रदान कर रहे हैं…….आभार
इनके माध्यम से इतिहास,पुरातात्विक धरोहरों के प्रति आपकी लगन तथा आपकी भ्रमण प्रवृ्ति भी स्पष्ठ दृ्ष्टिगोचर हो रही है.
पुन: आभार स्वीकार करें……..
मार्च 1, 2009 को 2:39 अपराह्न
आप का लेख पढ कर हमे वो जानकारी मिलती है जो शायद किताबो मे भी नही हैम मै भी डा अमर की बातो से सहमत हुं, क्योकि आजादी के बाद हमारे नेताओ ने ( सरकार इन्ही के इशारो पर चलती है इस लिये सरकार को दोष नही देता) हमारी धरोहर को कितना जलील किया, बस अपनी ओर अपने रिश्ते दारो के घर महल बनाने पर तुले है…..
आप का बहुत बहुत धन्यवाद, कहानी भी बहुत सुंदर लगी
मार्च 1, 2009 को 2:41 अपराह्न
चलो पिता के घर पर वैसे भी पुत्र का अधिकार होता ही है ।
अंग्रेजों के लिये तो शिवजी महज़ एक म्युजियम पीस ही हैं । तो उन्हें वहीं रखा होगा ब्रिटिश म्यूजि़यम में ।
मार्च 1, 2009 को 2:41 अपराह्न
जीवन की घटनाओं से ही तो रोचक कहानी का आगाज़ होता है। नारायण जी ने उन छोटी-छोटी घटनाओं को बडे रोचक ढंग से प्रस्तुत करने में महारथ हासिल की थी। आपका पोस्ट भी रोचक बन पडा है।
मार्च 1, 2009 को 3:54 अपराह्न
निस्सन्देह रोचक और अनूठी जानकारी।
मार्च 1, 2009 को 6:02 अपराह्न
आपके द्वारा दी गयी जानकारी रोचक है ।
मार्च 1, 2009 को 7:07 अपराह्न
आपका हर आलेख मन को स्फूर्ति से भर देता है. बस ऐसा लगता है कि मैं खुद आप के साथ उस स्थान का विचरण कर रहा हूँ. आप को प्रभु ने लेखन की विशेष शक्ति दी है.
सस्नेह — शास्त्री
मार्च 1, 2009 को 7:41 अपराह्न
जानकारी रोचक है…
प्रहार: मेरे इस दिल को जब जख्म तुम ही देने लगे
मार्च 1, 2009 को 9:13 अपराह्न
दिलचस्प जानकारी !
मार्च 1, 2009 को 10:31 अपराह्न
Don’t you think that prosperity of such monuments in our country are
difficult to conserve or particular care. Because we had to face so many problems when we independent. I think it’ll take time to educate about these wealth to our rural people. I came to know this fact that people use its (monument’s) stone to lay the foundations. How disgusting!?!
मार्च 1, 2009 को 11:11 अपराह्न
achchhaa lagaa is naee jaankaaree ko padhkar.
मार्च 2, 2009 को 9:41 पूर्वाह्न
मंदिर के बारे में बहुत ही रोचक जानकारी..
२० स्वर्ण मुद्राओं में शिवलिंग ले जाने दिया!और नंदी भी ले गए!
बड़ा ताज्जुब हुआ सुन कर…
मार्च 2, 2009 को 10:41 पूर्वाह्न
वाह दादा…. इस बार भी बढ़िया दिलचस्प जानकारी दी आपने…. वैसे अंग्रेज़ तो बहुत-कुछ मुफ्त में भी उठा ले गये.
मार्च 2, 2009 को 1:20 अपराह्न
achhi jankari…
मार्च 2, 2009 को 2:16 अपराह्न
बहुत उम्दा जानकारी! आभार.
मार्च 2, 2009 को 3:48 अपराह्न
सांस्कृतिक महत्व की इस जानकारी के लिए आभार
मार्च 2, 2009 को 7:37 अपराह्न
सन् १८८५ में फिलाडेल्फिया में एक अंतर राष्ट्रीय मेला लगा था, उसमे प्रदर्शित करने के लिए एक शिव लिंग वहां भेजा गया था विश्व मेला अधिकारीयों ने उसे वहां प्रदर्शित नहीं होने दिया. अगले साल ऐसा ही मेला लन्दन में आयोजित हुआ यही शिवलिंग वहां भी पहुंचा लेकिन उसका प्रदर्शन तो दूर उसको अश्लील कह कर फैंक दिया गया.
सौभाग्य से सर जोर्ज बर्डवुड की नजर उस पर पड़ी वे उसे अपने दफ्तर ले आये कहीं से एक रुद्राक्ष माला का प्रबंध कर उसको एक मेज पर स्थापित कर दिया. उन्होंने अपने भारतीय मित्र श्री नाडकर्णी से इस शिवलिंग की उचित स्थान पर स्थापना सम्बन्धी आग्रह किया. श्री नाडकर्णी ने अपने धर्मगुरु स्वामी आत्मानन्द सरस्वती से इस विषय में चर्चा की स्वामी जी ने एक कश्मीरी ब्राहमण से धर्म शास्त्र सम्बन्धी सलाह मांगी तो उन्होंने सहमती दे दी कि इसकी विदिवत प्रतिष्ठा में कोई शास्त्र सम्मत बाधा नहीं है.
सर जोर्ज बर्ड वुड ने स्वयं के खर्च से इसे भारत पहुँचाया और इसकी स्थापना करावा कर असीम आनंद प्राप्त किया, कभी अवसर मिले तो कारवार से कोई ३५ मील दूर कोंकण के गौड़ सारस्वत मठ में दर्शन कर लाभ उठायें. इसका नाम चक्रवर्ती शिवलिंग है और सात समंदर की यात्रा पूर्ण कर स्थापित होने के कारण यह नाम भी सर जोर्ज बर्ड वुड का ही दिया हुआ है
सब अपना अपना नजरिया है !
मार्च 3, 2009 को 1:14 पूर्वाह्न
दिलचस्प जानकारी। किशोर चौधरी द्वारा दी गई जानकारी भी रोचक औ ज्ञानवर्धक है।
मार्च 3, 2009 को 9:50 पूर्वाह्न
आपके ब्लॉग पर अत्यंत रोचक ऐतिहासिक जानकारी मिलती है बहुत बहुत धन्यवाद इन जानकारियों को सबके को बांटने के लिए
मार्च 3, 2009 को 4:09 अपराह्न
रोचक एवं शिक्षाप्रद जानकारी।
मार्च 3, 2009 को 8:50 अपराह्न
यहाँ ( अमेरिका मेँ ) छोटे से छोती राष्ट्र की चीज को सजा कर पर्यटकोँ के लिये देखने का इँतजाम किया जाता है और हमारा इतिहास इतना प्राचीन है कि हमेँ उसी की उपेक्षा होती है ..कब भारत की प्राचीन चीजोँ को धरोहर रुप मेँ सँजोया जायेगा ? – चक्रवर्ती शिकलिँग को भारत आकर स्थायी होने पर मेरे प्रणाम !!
स्वामी दयानँद सरस्वती शायद ऐसे ही मामलोँ से मूर्ति पूजा के विरुध्ध हो गये थे – अच्छी जानकारी दी आपने –
– लावण्या
मार्च 17, 2009 को 1:53 अपराह्न
Bahut hi dilchasp jaankari di aapne….
Fursat me aapke poston ko padhna bada aanand deta hai…har post nayi aur nayab jankari de jati hai.
Bahut bahut aabhaar aapka.
अप्रैल 7, 2009 को 11:17 पूर्वाह्न
Humasha humari sanskritik dharohar ko kisi na kisi ne luta hai and hum aaj bhi yeh keh kar itrate hain ki pichle sau saalo main humne kisi par kabza nahiin kia ya kisi ko apna gulaam nahiin banaya… kya ye humari chup rhne ki keemat to nahin.. chahe wo angrez ho ya phir mugal hum to har lute gaye. Aaj hum jis dhwanshavshesh ko samete garv mehsoos karte hain kahiin ye humari kayarta ki pratibimb to nahiin …
aapki is lekh ke liye dhanyavad…
सितम्बर 2, 2009 को 5:18 पूर्वाह्न
aji wah kya jankari rakhtey hai aap….
main aap ka har panna padu ga kyo ki main hindtatv key barey main kuch bhi nahi janta hoon…main hindu hoon or hindu ka koi karm nahi janta hoon or upar sey main yaha europ main akar bas gaya hoon…aap ka bahut bahut sukriya in sab batto key liye….jai siya ram
दिसम्बर 24, 2010 को 5:16 अपराह्न
panna